“विकास पर भारी पड़ा जातिवाद” — भाजपा शीर्ष नेतृत्व पर जमकर भड़के आशुतोष शंकर सिंह।
डॉ.राहुल कुमार द्विवेदी ,सीतामढ़ी।
सीतामढ़ी (रीगा) ।बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के माहौल में जहां हर पार्टी अपने-अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर रही है, वहीं भाजपा से टिकट की उम्मीद लगाए बैठे रीगा विधानसभा के प्रबल दावेदार आशुतोष शंकर सिंह का दर्द छलक पड़ा। सोशल मीडिया पर जारी एक भावुक संदेश में उन्होंने भाजपा शीर्ष नेतृत्व के फैसले पर खुलकर नाराज़गी जताई और आरोप लगाया कि “विकास पर जातिवाद भारी पड़ गया।”
जातीय समीकरण में उलझा टिकट, मेहनत बेकार गई
आशुतोष शंकर सिंह ने कहा कि वह वर्षों से भाजपा के लिए तन-मन-धन से काम करते रहे। न केवल पार्टी संगठन को मज़बूत करने के लिए बल्कि जनता के हित में भी उन्होंने लगातार संघर्ष किया। बावजूद इसके उन्हें टिकट नहीं मिला। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि सामान्य जाति से होने और किसी राजनीतिक परिवार से न जुड़े होने की वजह से उनके साथ भेदभाव हुआ।
उनके शब्दों में, “पूरी तैयारी और मेहनत करने के बावजूद सिर्फ सामान्य जाति से होने के कारण मुझे भाजपा से 2025 में रीगा विधानसभा से लड़ने का मौका नहीं मिला।”
त्याग और तपस्या पर सवाल
उन्होंने अपने संदेश में यह भी उल्लेख किया कि कई वर्षों से उद्योग स्थापित करने, रोजगार के अवसर लाने और क्षेत्रीय विकास के लिए अथक प्रयास करते रहे हैं। भाजपा के लिए दिन-रात त्याग और तपस्या की, लेकिन टिकट की बारी आते ही उनकी सारी मेहनत जातिगत समीकरणों के बोझ तले दब गई।
उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि क्या आज भी बिहार की राजनीति जाति के चश्मे से ही देखी जाएगी, जहां कार्य और कर्म का मूल्यांकन पीछे छूट जाता है?
हौसला बुलंद, जनता पर भरोसा
हालांकि, आशुतोष शंकर सिंह ने यह भी स्पष्ट किया कि इस निर्णय से उनका हौसला टूटा नहीं है। उन्होंने कहा, “मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन जरूर आएगा जब मेरे द्वारा किए गए कार्य और कर्म के कारण, जातिवाद से ऊपर उठकर पार्टी मुझे जनता की सेवा करने का अवसर जरूर प्रदान करेगी।”
सिंह ने खुद को जनता का बेटा और भाई बताते हुए भरोसा दिलाया कि जैसे पहले वह क्षेत्र की सेवा करते आए हैं, वैसे ही आगे भी हर सुख-दुख में लोगों के साथ खड़े रहेंगे।
भाजपा नेतृत्व को साधा निशाना
उनकी नाराज़गी भाजपा शीर्ष नेतृत्व की ओर साफ तौर पर झलक रही थी। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा द्वारा लिया गया निर्णय सर्वमान्य है और पार्टी अनुशासन के नाते वह उसका सम्मान करते हैं। लेकिन पंक्तियों के बीच छिपा आक्रोश साफ संकेत देता है कि टिकट वितरण में जातिगत समीकरणों का दबाव ज़्यादा हावी रहा।
जनता के लिए संकल्प दोहराया
अपने बयान में आशुतोष शंकर सिंह ने यह भरोसा दिलाया कि बिहार के विकास, युवाओं को रोजगार देने और गरीबों, शोषितों व वंचितों को आगे लाने के लिए वह लगातार संघर्षरत रहेंगे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि एनडीए की सरकार बनाना प्रदेश के लिए बेहद ज़रूरी है क्योंकि केवल एनडीए ही बिहार को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ा सकता है।
एनडीए उम्मीदवारों को शुभकामनाएं
ग़ुस्से और आक्रोश के बीच भी सिंह ने परिपक्वता दिखाते हुए सभी एनडीए उम्मीदवारों को हार्दिक शुभकामनाएं दीं और उनकी जीत की अग्रिम बधाई भी दी। उन्होंने जनता से अपील की कि बिहार में स्थायी विकास और स्थिर सरकार के लिए एनडीए को समर्थन दें।
संदेश में छिपा राजनीतिक संकेत
विश्लेषकों का मानना है कि आशुतोष शंकर सिंह का यह संदेश दो तरह का संकेत देता है। पहला—वह भाजपा के अनुशासित सिपाही बने रहेंगे और पार्टी से अलग होकर कोई कदम नहीं उठाएंगे। दूसरा—उनकी नाराज़गी यह दर्शाती है कि यदि भविष्य में हालात नहीं बदले तो वह अपनी राजनीतिक राह पर स्वतंत्र निर्णय भी ले सकते हैं।
रीगा विधानसभा सीट पर हमेशा से जातीय समीकरण हावी रहते हैं और यही वजह है कि टिकट बंटवारे में भी इसी फैक्टर को तरजीह दी गई।
जनता के बीच सहानुभूति का माहौल
स्थानीय राजनीतिक जानकारों का मानना है कि आशुतोष शंकर सिंह का दर्द जनता के बीच सहानुभूति का माहौल बना सकता है। उनकी वर्षों की सक्रियता और जमीनी पकड़ से इनकार नहीं किया जा सकता। क्षेत्र में वह लगातार लोगों के सुख-दुख में शामिल होते रहे हैं। अब जब उन्हें टिकट नहीं मिला है, तो यह देखने वाली बात होगी कि जनता इस भावुक अपील को किस रूप में लेती है।
बड़ा सवाल: कब बदलेगा समीकरण?
बिहार की राजनीति में जातिवाद का असर दशकों से देखा जा रहा है। विकास के मुद्दे पर बार-बार बातें होती हैं, लेकिन टिकट बंटवारे से लेकर चुनावी रणनीति तक जातीय गणित को ही प्राथमिकता मिलती है। आशुतोष शंकर सिंह का दर्द इसी सच्चाई को उजागर करता है कि चाहे कोई कितना भी समर्पित कार्यकर्ता क्यों न हो, टिकट की लड़ाई में जातिवाद अक्सर भारी पड़ जाता है।
निष्कर्ष:
आशुतोष शंकर सिंह का बयान न सिर्फ भाजपा बल्कि पूरे बिहार की राजनीति के लिए एक आईना है, जिसमें विकास की रोशनी जातिवाद की धुंध में धुंधली पड़ जाती है। सवाल यह है कि क्या कभी बिहार की राजनीति सचमुच विकास के मुद्दों पर केंद्रित हो पाएगी या फिर जातीय समीकरण हमेशा से उसकी दिशा तय करते रहेंगे?












